शिक्षक हूँ मैं - हनुमान प्रसाद जांगिड
शिक्षक हूँ मैं - हनुमान प्रसाद जांगिड
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इस कल्पतरु कलम रूपी तलवार में बहुत धार हैं।
किन्तु राजधर्म उपेक्षाओं के आगे बहुत लाचार है।।
दिया जाता है काज कोई भी,सहर्ष ही स्वीकार हैं।
छूटता कुछ नहीं यहाँ,शिक्षक का यहीं व्यवहार हैं।।
फलों से लदा वट ज्यों विनम्र होकर झुक जाता है।
समाज,राष्ट्र हित नत मस्तक हो शीश झुकाता हैं।।
युगों से जो निज जीवन न्योछावर करता आया है।
दुर्योधन हो या अर्जुन, अंतर कभी न दिखाया है ।।
लोकतंत्र का प्रहरी बन, जन, पशु तक गिनता है।
क्यो रह जाए अशिक्षित कोई, घर घर फिरता है ।।
कोरोना महामारी में धर्म,अर्थ और तन अर्पित है ।
अजान भले व्याधि से, किन्तु कर्तव्य मुखरित है ।।
शिक्षक हूँ आदि काल से, वाल्मीकि,वेदव्यास हूँ ।
एकलव्य के लिये आधार हूँ द्रोण सा लाचार हूँ ।।
मरण काल तक कर्तव्य, "कलाम"सा सम्मान है ।
"सर्वपल्ली"के स्वप्नों पर शिक्षक को अभिमान है।।
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