आज भी है "अंधायुग" - प्रेम आनंदकार
आज भी है "अंधायुग"
काश हम महाभारत से कुछ सबक लें
प्रेम आनन्दकर, अजमेर।
मैंने आज ख्यातिप्राप्त लेखक, विचारक, साहित्यकार और कवि डॉ. धर्मवीर भारती द्वारा लिखित नाट्यकाव्य "अंधायुग" पढ़ा। इसमें महाभारत के अनेकों ऐसे प्रसंगों का जिक्र किया गया है, जो आज भी प्रासंगिक हैं। इस नाट्यकाव्य में कई जगह शासक और प्रजा की स्थिति का बखूबी चित्रण किया गया है, जो सबक लेने लायक है। इसमें कहा गया है कि आज के शासक ऐसे नहीं हैं कि उन्हें जनता ईश्वर माने, क्योंकि शासक जनता को प्रजा या संतानवत नहीं मानते। वे स्वार्थ, पक्षपात, जमाखोरी, भाई-भतीजावाद को अपनाते हैं। धृतराष्ट्र पांडवों को उनका हिस्सा न देकर दुर्योधन का ही पक्ष लेते रहे। आज के शासक भी जनता या प्रजा की परवाह किए बिना अपनी संतान को सत्ता में लाने का प्रयास करते हैं। उनकी अपनी इच्छा ही नीति व धर्म बन जाता है। सत्ताधारियों पर कमीशन खाने, हवाला, गबन, घोटालों के आरोप लगते हैं। उनका व्यवहार दुर्योधन का पक्ष लेने वाले धृतराष्ट्र जैसा हो जाता है। धृतराष्ट्र अंधे थे, किंतु कर्ताधर्ता उनका पुत्र दुर्योधन था। उसने पांडवों को सुई की नोक के बराबर भी जमीन न देने की बात कही थी। उसका आचरण असत्य और अधर्म का था। गांधारी ने चहुंओर आडंबर और पक्षपात देखकर खुद अपनी आंखों पर पट्टी बांध ली थी। किंतु वह भी संतान के मोह में जकड़ी रहीं। महाभारत युद्ध में दुर्योधन सहित अपने पुत्रों के मारे जाने पर गांधारी ने भगवान श्री कृष्ण को शाप (श्राप) दिया कि जैसे मेरे पुत्र मरे हैं, वैसे ही तुम्हारा पूरा वंश पागल कुत्तों की तरह आपस में लड़-लड़कर एक-दूसरे को फाड़ खाएगा और तुम स्वयं ही उन लोगों का विनाश करोगे। उस विनाश के कई वर्ष बाद तुम किसी घने जंगल में, जहां तुम्हारे वंश के लोग साथ नहीं होंगे, किसी साधारण व्याध के हाथों मारे जाओगे। तुम प्रभु भले ही हो, लेकिन मेरे शाप से पशुओं की तरह मारे जाओगे। भगवान श्री कृष्ण जंगल में पीपल के वृक्ष के नीचे बैठे थे, तब बहेलिए जरा ने मृग की आंख समझकर श्री कृष्ण के पैरों में बाण मारा था, जिससे उनके जीवन का अंत हो गया था। आज भी यही हो रहा है। राजनेता अपनी संतान और घर भरने की मोहमाया में उलझे हुए हैं। जनता भले ही परेशानी भोगे, शासकों को परवाह नहीं होती है। पार्टी के कार्यकर्ताओं की अनदेखी कर अपने बेटे-बेटी, पोते-पोती, दोहिता-दोहिती, भतीजे-भतीजी को ही अपना राजनीतिक वारिस बनाते हैं, सत्ता और रजनीति में लाते हैं। गांधारी की तरह जनता और पार्टी कार्यकर्ताओं को सड़-सड़कर मरने और परेशानियों को भोगने का शाप देते हैं। इस नाट्यकाव्य के माध्यम से डॉ. भारती ने कहना चाहा है कि मानव समाज युद्ध के कारणों को जान ले, ताकि उनसे दूर रहा जा सके। मर्यादाहीनता, बर्बरता, मनोवृत्तियां, संतानों के प्रति ममता, विवेकहीनता, अतिशय, वैयक्तिकता, लोभ-स्वार्थ, सत्ता की मदहोशी आदि युद्ध के कारण हैं।
प्रेम आनन्दकर
अजमेर (राजस्थान)
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