इतनी मौतों के बाद अब सुध आई, काश पहले चेतते तो बेचारे मजबूर मजदूर बेमौत ना मारे जाते

इतनी मौतों के बाद अब सुध आई


काश पहले चेतते तो बेचारे मजबूर मजदूर बेमौत ना मारे जाते



प्रेम आनन्दकर, अजमेर।



महाराष्ट्र के औरंगाबाद में मालगाड़ी से कटकर और मध्यप्रदेश के गुना में सड़क दुर्घटना में मजबूर मजदूरों के बेमौत मारे जाने तथा हजारों मजदूरों के सैकड़ों पैदल चलकर अपने गांव-शहर तक जाने और उनके पैरों में छाले पड़ने के बाद हमारे शासन-प्रशासन की नींद अब खुली है। अब सरकारी हाकिमों को फरमान दिया गया है कि यदि कोई भी मजदूर पैदल जाता हुआ मिला तो इसकी जिम्मेदारी उपखंड अधिकारी की होगी। क्यों भाई, हर महीने लाख-लाख रुपए से ऊपर की मोटी तनख्वाह लेने वाले हाकिमों की क्या पहले कोई जिम्मेदारी नहीं थी। जिम्मेदारी तो पहले भी थी और अब भी है। इसके लिए किसी फरमान की जरूरत ना पहले थी, और ना ही अब है। लेकिन साहब, यह हाकिम केवल गुर्राना जानते हैं। एयरकंडीशनर कमरों में बैठे-बैठे कागजी खानापूर्ति करना जानते हैं। उन्हें मजबूर मजदूरों के दर्द का क्या पता है। कभी सरकारी गाड़ी से नीचे उतरकर गरीबों और मजदूरों की पीड़ा जानने की कोशिश तक नहीं करते। मजाल है जो उनकी कार के शीशे नीचे उतर जाएं। उतरे भी कैसे, क्योंकि साहिबानों को गर्मी जो लगती है। शासन-प्रशासन केवल लॉकडाउन के चलते प्रवासी मजदूरों को बाड़ों में बंद करने की रट लगाए रहा, लेकिन उनका दर्द नहीं जाना। यही कारण है कि हजारों मजदूरों को अपने बीवी-बच्चों के साथ पैदल चलना पड़ा। अखबारों और सोशल मीडिया के सभी प्लेटफार्म पर ऐसी-ऐसी तस्वीरें देखने को मिलीं, जिन्हें देखकर दिल-दिमाग के सारे तार झनझना गए। औरंगाबाद और गुना की घटनाएं भी ऐसे ही हालातों का नतीजा रहीं। यदि मजदूरों के लिए पहले ही ट्रेनें चला दी जातीं, उन्हें पहले ही उनके घर पहुंचाने की व्यवस्था कर दी जाती तो मजदूर बेमौत नहीं मारे जाते। अब भी तो शासन-प्रशासन ट्रेनों और बसों से मजदूरों को उनके ठिकानों पर पहुंचाने की व्यवस्था कर रहा है। हो सकता है, शासन-प्रशासन कुछ मौतें होने का इंतजार कर रहा हो। वैसे भी हमारे देश में यह दस्तूर-सा बन गया है कि जब तक कोई घटना नहीं घटे, तब तक सबक नहीं लिया जाता है।


प्रेम आनन्दकर


अजमेर, राजस्थान। 



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