क्यों मनाया जाता है गरीब नवाज ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती का उर्स - मुबारक खान जिला अध्यक्ष, अजमेर (ऑल इंडिया गद्दी समाज)
क्यों मनाया जाता है गरीब नवाज ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती का उर्स
मुबारक खान जिला अध्यक्ष, अजमेर (ऑल इंडिया गद्दी समाज)
सूफी सिलसिले में दक्षिण एशियाई सूफी संत मुख्य रूप से चिश्तिया कहे जाते हैं |
सूफी संत हज़रत ख़्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती की मज़ार अजमेर शहर के बीचो बीच है। उनके जन्म को लेकर भी थोड़ा असमंजस है लेकिन यह माना जाता है कि हज़रत ख़्वाजा मोइनुद्दीन हसन चिश्ती का जन्म 537 हिज़री संवत् अर्थात 1161 ई॰ में हुआ था और उनका जन्मस्थान ईरान के इस्फ़हान नगर है ।
गरीब नवाज ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती ने अपना पूरा जीवन सूफी मत के प्रसार में लगाया और जीवन भर गरीबो और जरुरतमंदो की सेवा की ।
सन् 1233 ई. में 91 वर्ष की उम्र में ख्वाजा साहब ने इस दुनिया से पर्दा (इन्तेकाल) ले लिया और करीब 350 वर्ष तक उनकी मजार साधारण संतों की तरह की ही थी। 16वीं शताब्दी में सम्राट अकबर के समय में दरगाह की मान्यता बढ़ी।
रजब (अरबी माह) की एक से छ: तारीख तक गरीब नवाज ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती का उर्स मनाया जाता है ।
गरीब नवाज ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती ही ऐसे सूफी संत हुए है जिनका उर्स 6 दिन मनाया जाता है । अन्यथा जितने भी सूफी संत हुए है, अधिकतर उनका उर्स एक दिन का ही मनाया जाता है । आमतौर पर किसी सूफी संत की पुण्यतिथि (विसाल का दिन) पर उनकी दरगाह पर वार्षिक रूप से आयोजित किये जाने वाले कार्यक्रम (उत्सव) को ही उर्स कहते हैं। सूफी संतो को परमेश्वर का प्रेमी समझा जाता है या कहा जाता है । गरीब नवाज ख्वाजा मुईनुद्दीन हसन चिश्ती का उर्स छह दिन का क्यों होता है इस बिंदु पर फिर कभी चर्चा करेंगे ।
सूफी मत की यह खूबी है कि आपस में भाईचारे की तालीम लोगों को दें। सूफी सब दूसरे बड़े साधु-संतों ने जो दुनिया को तालीम दी, उसमें सबसे पहले यह बात आती है कि तुम किसी के मजहब को बुरा मत कहो, हर मजहब का आदर करो। यदि तुम अपने मजहब का आदर करना चाहते हो तो दूसरे मजहब का आदर करना भी सीखो। मकसद है सूफियों का।
अजमेर में सूफी संत ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती दरगाह शरीफ में उर्स पर हर साल लाखो की संख्या में देश विदेश से जायरीन शिरकत करते हैं। उर्स मेले के मौके पर तो अजमेर और खासतौर से दरगाह शरीफ और दरगाह बाजार की रौनक देखते ही बनती है।
सबसे पहले उर्स का झंडा चढ़ाया जाता है जो की अजमेर दरगाह में स्थित बुलंद दरवाज़े पर चढ़ाया जाता है । झंडा चढाने का कार्य भीलवाड़ा के गौरी परिवार द्वारा परंपरागत तरीके से किया जाता है | झंडा चढाने को ही उर्स की अनौपचारिक शुरुवात मन जाता है । अजमेर में ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की दरगाह में 1944 से हर वर्ष गौरी परिवार उर्स का झंडा लेकर आता रहा है और इस झंडे की रस्म के बाद चांद दिखने पर उर्स शुरू हो जाता है। यह परिवार 130 किलोमीटर दूर भीलवाड़ा का रहने वाला है।
बताया जाता है कि उर्स के मौके पर झंडा चढ़ाने की परम्परा का निर्वाह गौरी परिवार वर्ष 1944 से निभाता आ रहा है। उर्स का झंडा लेकर आने वाले फखरुद्दीन गौरी बताते बताया कि पुराने जमाने में इमारतें ज्यादा ऊंची नहीं होने के कारण उर्स शुरू होने की जानकारी लोगों तक पहुंचाने के लिए 1928 से दरगाह में उर्स का झंडा लगाने की शुरुआत हुई।
शहनाई वादन और सूफी कलामों पर आशिकान ए ख्वाजा झूमते नजर आते हैं। देश के विभिन्न हिस्सों से आए जायरीनों का दरगाह में दिन भर तांता लगा रहता है ।
लोग सिर पर मखमल की चादर और अकीदत के फूल लिए अपनी बारी का इंतजार करते है । जन्नती दरवाजा साल में चार बार विशेष मौके पर खोला जाता है, इस कारण जायरीनों में जन्नती दरवाजे से गुजरने की होड़ भी मची रहती है ।
अहाता ए नूर में शाही कव्वालों के अलावा देश के विभिन्न हिस्सों से आए कव्वाल गरीब नवाज की शान में मनकबत के नजराने पेश करते नजर आते है ।
उर्स के मोके पर देश के प्रधानमत्री सहित देश के कई बड़े राजनितिक व्यक्तियों की ओर से चादर पेश की जातो है ।
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